भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"वो सुन न सके / सुनीता शानू" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनीता शानू |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:39, 9 जुलाई 2019 के समय का अवतरण

घूँघट की आड़ से
आँसुओं की धार में
पलके झुकाये
वह कहती रही
मगर
वो सुन न सके...

दीवारें सिसकती रहीं
कालीन भीगते रहे
कातर निगाहों से
उन्हें तकते रहे
मगर
वो सुन न सके...

एक वही थी जो
कह सकती थी
बहुत कुछ
एक वही थी जो
समझती थी
सबकी बातें
मगर...
जोर से बोलने का हक
सिर्फ़ उन्हें था.

दिन पर दिन
आसुँओं से तर-ब-तर
उम्र की ढलान में
दीवारें दरक गई
कालीन फ़ट गये
अब
सब्र का दामन छूटा,
घूँघट हटा,
पलकें उठी
वह झल्लाई
चिल्लाई जोर से

...अब बाबूजी ऊँचा सुनते हैं।