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"कनुप्रिया - एक प्रश्न / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर

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अच्छा, मेरे महान् कनु,
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मान लो कि क्षण भर को
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मैं यह स्वीकार लूँ
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कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
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सिर्फ भावावेश थे,
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सुकोमल कल्पनाएँ थीं
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रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे -
  
अच्छा, मेरे महान् कनु,<br>
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मान लो कि
मान लो कि क्षण भर को<br>
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क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ<br>
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मैं यह स्वीकार कर लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण<br>
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सिर्फ भावावेश थे,<br>
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पाप-पुण्य, धर्माधर्म, न्याय-दण्ड
सुकोमल कल्पनाएँ थीं<br>
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क्षमा-शील वाला यह तुम्हारा युद्ध सत्य है -
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे -<br><br>
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मान लो कि<br>
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तो भी मैं क्या करूँ कनु,
क्षण भर को<br>
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मैं तो वही हूँ
मैं यह स्वीकार कर लूँ<br>
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तुम्हारी बावरी मित्र
कि<br>
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जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
पाप-पुण्य, धर्माधर्म, न्याय-दण्ड<br>
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जितना तुमने उसे दिया
क्षमा-शील वाला यह तुम्हारा युद्ध सत्य है -<br><br>
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जितना तुमने मुझे दिया है अभी तक
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उसे पूरा समेट कर भी
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आस-पास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
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अपनी जमुना में
मैं तो वही हूँ<br>
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जहाँ घण्टो अपने को निहारा करती थी मैं
तुम्हारी बावरी मित्र<br>
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वहाँ अब शस्त्रों से लदी हुई
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला<br>
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अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?
जितना तुमने उसे दिया<br>
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जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ नहीं आता है!<br><br>
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अपनी जमुना में<br>
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धारा में बह-बह कर आते हुए, टूटे रथ
जहाँ घण्टो अपने को निहारा करती थी मैं<br>
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जर्जर पताकाएँ किसकी हैं?
वहाँ अब शस्त्रों से लदी हुई<br>
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अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?<br><br>
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धारा में बह-बह कर आते हुए, टूटे रथ<br>
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हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ
जर्जर पताकाएँ किसकी हैं?<br><br>
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नभ को कँपाते हुए, युद्ध-घोष, क्रन्दन-स्वर,
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भागे हुए सैनिकों से सुनी हुई
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क्या ये सब सार्थक हैं?
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चारों दिशाओं से
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गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो
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हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ<br>
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जितनी समझ अब तक तुमसे पाई है कनु,
नभ को कँपाते हुए, युद्ध-घोष, क्रन्दन-स्वर,<br>
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उतनी बटोर कर भी
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुई<br>
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अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएँ युद्ध की<br>
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कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है
क्या ये सब सार्थक हैं?<br>
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अर्जुन की तरह कभी
चारों दिशाओं से<br>
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मुझे भी समझा दो
उत्तर को उड़-उड़ कर जाते हुए<br>
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सार्थकता क्या है बन्धु?
गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो<br>
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(जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को)<br><br>
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जितनी समझ अब तक तुमसे पाई है कनु,<br>
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मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण
उतनी बटोर कर भी<br>
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कितना कुछ है जिसका<br>
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कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है<br>
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अर्जुन की तरह कभी<br>
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मुझे भी समझा दो<br>
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सार्थकता क्या है बन्धु?<br><br>
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मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण<br>
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रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे -<br>
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तो सार्थक फिर क्या है कनु?
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22:49, 6 जुलाई 2020 का अवतरण

अच्छा, मेरे महान् कनु,
मान लो कि क्षण भर को
मैं यह स्वीकार लूँ
कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण
सिर्फ भावावेश थे,
सुकोमल कल्पनाएँ थीं
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे -

मान लो कि
क्षण भर को
मैं यह स्वीकार कर लूँ
कि
पाप-पुण्य, धर्माधर्म, न्याय-दण्ड
क्षमा-शील वाला यह तुम्हारा युद्ध सत्य है -

तो भी मैं क्या करूँ कनु,
मैं तो वही हूँ
तुम्हारी बावरी मित्र
जिसे सदा उतना ही ज्ञान मिला
जितना तुमने उसे दिया
जितना तुमने मुझे दिया है अभी तक
उसे पूरा समेट कर भी
आस-पास जाने कितना है तुम्हारे इतिहास का
जिसका कुछ अर्थ मुझे समझ नहीं आता है!

अपनी जमुना में
जहाँ घण्टो अपने को निहारा करती थी मैं
वहाँ अब शस्त्रों से लदी हुई
अगणित नौकाओं की पंक्ति रोज-रोज कहाँ जाती है?

धारा में बह-बह कर आते हुए, टूटे रथ
जर्जर पताकाएँ किसकी हैं?

हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ
नभ को कँपाते हुए, युद्ध-घोष, क्रन्दन-स्वर,
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुई
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएँ युद्ध की
क्या ये सब सार्थक हैं?
चारों दिशाओं से
उत्तर को उड़-उड़ कर जाते हुए
गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो
(जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को)

जितनी समझ अब तक तुमसे पाई है कनु,
उतनी बटोर कर भी
कितना कुछ है जिसका
कोई भी अर्थ मुझे समझ नहीं आता है
अर्जुन की तरह कभी
मुझे भी समझा दो
सार्थकता क्या है बन्धु?

मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण
रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे -
तो सार्थक फिर क्या है कनु?