"तुमुल कोलाहलों में / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतींद्रनाथ राही |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Arti Singh (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatGeet}} | {{KKCatGeet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | साँझ के घन कुन्तलों के | + | साँझ के घन कुन्तलों के मोह में |
− | मोह में | + | |
बाँधो न इतना | बाँधो न इतना | ||
मैं दहकती मोर का | मैं दहकती मोर का | ||
सूरज उगाने जा रहा हूँ | सूरज उगाने जा रहा हूँ | ||
+ | |||
स्वप्न-जालों का घना कोहरा | स्वप्न-जालों का घना कोहरा | ||
स्वयं होगा तिरोहित | स्वयं होगा तिरोहित | ||
− | मैं | + | मैं निशा का घर |
सितारों से सजाने आ रहा हूँ | सितारों से सजाने आ रहा हूँ | ||
मिल रहा है दूर से | मिल रहा है दूर से | ||
− | + | आकाश गंगा का निमन्त्रण | |
एक नन्ही तारिका ने | एक नन्ही तारिका ने | ||
स्वस्तिका वाचन किया है। | स्वस्तिका वाचन किया है। | ||
− | कल | + | कल किसी स्वर्णिम शिखर पर |
− | किसी स्वर्णिम | + | ज्योति का दिनमान होगा है सुनिश्चित |
− | ज्योति का दिनमान होगा | + | फिर किसी सतकर्म का यश-गान होगा |
− | है | + | |
− | फिर किसी | + | |
− | सतकर्म का यश-गान होगा | + | |
टूटना गिरना-बिखरना | टूटना गिरना-बिखरना | ||
− | सृष्टि की | + | सृष्टि की शाश्वत नियति है |
देखना है पर कहाँ | देखना है पर कहाँ | ||
कितनी सुमति कितनी कुमति है | कितनी सुमति कितनी कुमति है | ||
− | देखता हूँ मैं | + | |
− | किसी | + | देखता हूँ मैं किसी संघर्षरत |
गतिमय चरण ने | गतिमय चरण ने | ||
एक नव-युग-क्रांति का | एक नव-युग-क्रांति का | ||
पंक्ति 39: | पंक्ति 37: | ||
शब्द के ही तो उड़े हैं | शब्द के ही तो उड़े हैं | ||
अन्तरिक्षों में कबूतर | अन्तरिक्षों में कबूतर | ||
− | रेशमी | + | रेशमी अश्वस्तियों में ही |
रहे अब तक उलझकर | रहे अब तक उलझकर | ||
− | हो रहे हैं तन्त्र के | + | |
− | नवकल्प से संकल्प गुंजित | + | हो रहे हैं तन्त्र के नवकल्प से संकल्प गुंजित |
तुम, हलाहल के लिये तो | तुम, हलाहल के लिये तो | ||
मत करो यह सिन्धु मंथित | मत करो यह सिन्धु मंथित | ||
− | जो मिला है | + | |
− | प्यार से ही बाँह में | + | जो मिला है प्यार से ही बाँह में हमने समेटा |
− | हमने समेटा | + | शिवम के हित ही सदा से शक्ति-आराधन किया है। |
− | + | ||
− | शक्ति-आराधन किया है। | + | |
</poem> | </poem> |
15:52, 31 दिसम्बर 2020 के समय का अवतरण
साँझ के घन कुन्तलों के मोह में
बाँधो न इतना
मैं दहकती मोर का
सूरज उगाने जा रहा हूँ
स्वप्न-जालों का घना कोहरा
स्वयं होगा तिरोहित
मैं निशा का घर
सितारों से सजाने आ रहा हूँ
मिल रहा है दूर से
आकाश गंगा का निमन्त्रण
एक नन्ही तारिका ने
स्वस्तिका वाचन किया है।
कल किसी स्वर्णिम शिखर पर
ज्योति का दिनमान होगा है सुनिश्चित
फिर किसी सतकर्म का यश-गान होगा
टूटना गिरना-बिखरना
सृष्टि की शाश्वत नियति है
देखना है पर कहाँ
कितनी सुमति कितनी कुमति है
देखता हूँ मैं किसी संघर्षरत
गतिमय चरण ने
एक नव-युग-क्रांति का
संकल्पयुत ज्ञापन दिया है।
शब्द के ही तो उड़े हैं
अन्तरिक्षों में कबूतर
रेशमी अश्वस्तियों में ही
रहे अब तक उलझकर
हो रहे हैं तन्त्र के नवकल्प से संकल्प गुंजित
तुम, हलाहल के लिये तो
मत करो यह सिन्धु मंथित
जो मिला है प्यार से ही बाँह में हमने समेटा
शिवम के हित ही सदा से शक्ति-आराधन किया है।