भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"घर के अंदर रही,घर के बाहर रही/ जहीर कुरैशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
[[Category:ग़ज़ल]] | [[Category:ग़ज़ल]] | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
घर के अन्दर रही, घर के बाहर रही | घर के अन्दर रही, घर के बाहर रही | ||
जिन्दगी की लड़ाई निरंतर रही | जिन्दगी की लड़ाई निरंतर रही | ||
पंक्ति 27: | पंक्ति 26: | ||
आज भी मोम-सा है ‘अहिल्या’ का मन | आज भी मोम-सा है ‘अहिल्या’ का मन | ||
देह, शापित ‘अहिल्या’ की पत्थर रही ! | देह, शापित ‘अहिल्या’ की पत्थर रही ! | ||
− | |||
</poem> | </poem> |
23:09, 21 अप्रैल 2021 के समय का अवतरण
घर के अन्दर रही, घर के बाहर रही
जिन्दगी की लड़ाई निरंतर रही
सत्य की चिलचिलाती हुई धूप में
एक सपनों की छतरी भी सिर पर रही
वो इधर चुप रही मैं इधर चुप रहा,
बीच में, एक दुविधा बराबर रही
रोक पाई न आँसू सहनशीलता
आँसुओं की नदी बात कहकर रही !
बीज के दोष को देखता कौन है,
उर्वरा भूमि यूँ भी अनुर्वर रही
काम आती नहीं एकतरफ़ा लगन
वो लगन ही फली, जो परस्पर रही
आज भी मोम-सा है ‘अहिल्या’ का मन
देह, शापित ‘अहिल्या’ की पत्थर रही !