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− | भीड़ बढ़ती | + | भीड़ बढ़ती रही |
− | चौराहे चौड़े होते | + | चौराहे चौड़े होते रहे |
− | लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज | + | लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज |
− | खाकर-निरापद भाव से | + | खाकर-निरापद भाव से |
− | बच्चे जनते रहे। | + | बच्चे जनते रहे। |
− | + | योजनायें चलती रहीं | |
− | बन्दूकों के कारखानों में | + | बन्दूकों के कारखानों में |
− | जूते बनते रहे। | + | जूते बनते रहे। |
− | और जब कभी मौसम उतार पर | + | और जब कभी मौसम उतार पर |
− | होता | + | होता था हमारा संशय |
− | हमें कोंचता था। हम उत्तेजित होकर | + | हमें कोंचता था। |
− | पूछते थे -यह क्या है? | + | हम उत्तेजित होकर |
− | ऐसा क्यों है? | + | पूछते थे - यह क्या है? |
− | फिर बहसें होतीं थीं | + | ऐसा क्यों है? |
− | शब्दों के जंगल में | + | फिर बहसें होतीं थीं |
− | हम एक-दूसरे को काटते थे | + | शब्दों के जंगल में |
− | भाषा की खाई को | + | हम एक-दूसरे को काटते थे |
− | + | भाषा की खाई को | |
− | + | ज़ुबान से कम जूतों से | |
− | कभी वह हारता रहा… | + | ज़्यादा पाटते थे |
− | कभी हम जीतते रहे… | + | कभी वह हारता रहा… |
− | इसी तरह नोक-झोंक चलती रही | + | कभी हम जीतते रहे… |
− | दिन बीतते रहे… | + | इसी तरह नोक-झोंक चलती रही |
− | मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया। | + | दिन बीतते रहे… |
− | मेरा सारा धीरज | + | मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया। |
− | युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में | + | मेरा सारा धीरज |
− | बह गया। | + | युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में |
− | मैंने देखा कि मैदानों में | + | बह गया। |
− | नदियों की जगह | + | मैंने देखा कि मैदानों में |
− | मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं | + | नदियों की जगह |
− | पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं | + | मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं |
− | दूर-दूर तक | + | पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं |
− | कोई मौसम नहीं है | + | दूर-दूर तक |
− | लोग- | + | कोई मौसम नहीं है |
− | घरों के भीतर नंगे हो गये हैं | + | लोग- |
− | और बाहर मुर्दे पड़े हैं | + | घरों के भीतर नंगे हो गये हैं |
− | विधवायें तमगा लूट रहीं हैं | + | और बाहर मुर्दे पड़े हैं |
− | सधवायें मंगल गा रहीं हैं | + | विधवायें तमगा लूट रहीं हैं |
− | वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ | + | सधवायें मंगल गा रहीं हैं |
− | अकाल का लंगर चला रही हैं | + | वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ |
− | जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं- | + | अकाल का लंगर चला रही हैं |
− | ‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना | + | जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं- |
− | सख्त मना है।’ | + | ‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना |
− | फिर भी उस उजाड़ में | + | सख्त मना है।’ |
− | कहीं-कहीं घास का हरा कोना | + | फिर भी उस उजाड़ में |
− | कितना डरावना है | + | कहीं-कहीं घास का हरा कोना |
− | मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का | + | कितना डरावना है |
− | सबसे बड़ा बौद्ध- मठ | + | मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का |
− | बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है | + | सबसे बड़ा बौद्ध- मठ |
− | अखबार के मटमैले हासिये पर | + | बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है |
− | लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का | + | अखबार के मटमैले हासिये पर |
− | शांतिवाद ,नाम है | + | लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का |
− | यह मेरा देश है… | + | शांतिवाद ,नाम है |
− | यह मेरा देश है… | + | यह मेरा देश है… |
− | हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक | + | यह मेरा देश है… |
− | फैला हुआ | + | हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक |
− | जली हुई मिट्टी का ढेर है | + | फैला हुआ |
− | जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब- | + | जली हुई मिट्टी का ढेर है |
− | नफ़रत है। | + | जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब- |
− | साज़िश है। | + | नफ़रत है। |
− | अन्धेर है। | + | साज़िश है। |
− | यह मेरा देश है | + | अन्धेर है। |
− | और यह मेरे देश की जनता है | + | यह मेरा देश है |
− | जनता क्या है? | + | और यह मेरे देश की जनता है |
− | एक | + | जनता क्या है? |
− | कुहरा,कीचड़ और कांच से | + | एक शब्द… सिर्फ एक शब्द है: |
− | बना हुआ… | + | कुहरा,कीचड़ और कांच से |
− | एक भेड़ है | + | बना हुआ… |
− | जो दूसरों की ठण्ड के लिये | + | एक भेड़ है |
− | अपनी पीठ पर | + | जो दूसरों की ठण्ड के लिये |
− | ऊन की फसल ढो रही है। | + | अपनी पीठ पर |
− | एक पेड़ है | + | ऊन की फसल ढो रही है। |
− | जो ढलान पर | + | एक पेड़ है |
− | हर आती-जाती हवा की जुबान में | + | जो ढलान पर |
− | हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है | + | हर आती-जाती हवा की जुबान में |
− | क्योंकि अपनी हरियाली से | + | हाँऽऽ.. हाँऽऽ करता है |
− | डरता है। | + | क्योंकि अपनी हरियाली से |
− | गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर | + | डरता है। |
− | शहर के शिवालों तक फैली हुई | + | गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर |
− | ‘कथाकलि’ की | + | शहर के शिवालों तक फैली हुई |
− | यह जनता… | + | ‘कथाकलि’ की अमूर्त मुद्रा है |
− | उसकी श्रद्धा अटूट है | + | यह जनता… |
− | उसको समझा दिया गया है कि यहाँ | + | उसकी श्रद्धा अटूट है |
− | ऐसा जनतन्त्र है जिसमें | + | उसको समझा दिया गया है कि यहाँ |
− | घोड़े और घास को | + | ऐसा जनतन्त्र है जिसमें |
− | एक-जैसी छूट है | + | घोड़े और घास को |
− | कैसी विडम्बना है | + | एक-जैसी छूट है |
− | कैसा झूठ है | + | कैसी विडम्बना है |
− | दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र | + | कैसा झूठ है |
− | एक ऐसा तमाशा है | + | दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र |
− | जिसकी जान | + | एक ऐसा तमाशा है |
− | मदारी की भाषा है। | + | जिसकी जान |
− | हर तरफ धुआँ है | + | मदारी की भाषा है। |
− | हर तरफ कुहासा है | + | हर तरफ धुआँ है |
− | जो दाँतों और दलदलों का दलाल है | + | हर तरफ कुहासा है |
− | वही देशभक्त है | + | जो दाँतों और दलदलों का दलाल है |
− | अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है- | + | वही देशभक्त है |
− | तटस्थता। यहाँ | + | अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है- |
− | कायरता के चेहरे पर | + | तटस्थता। |
− | सबसे ज्यादा रक्त है। | + | यहाँ |
− | जिसके पास थाली है | + | कायरता के चेहरे पर |
− | हर भूखा आदमी | + | सबसे ज्यादा रक्त है। |
− | उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है | + | जिसके पास थाली है |
− | हर तरफ कुआँ है | + | हर भूखा आदमी |
− | हर तरफ खाई है | + | उसके लिये, सबसे भद्दी गाली है |
− | यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है | + | हर तरफ कुआँ है |
− | जो या तो मूर्ख है | + | हर तरफ खाई है |
− | या फिर गरीब है | + | यहाँ, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है |
+ | जो या तो मूर्ख है | ||
+ | या फिर गरीब है</poem> |
17:33, 18 फ़रवरी 2022 का अवतरण
भीड़ बढ़ती रही
चौराहे चौड़े होते रहे
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनायें चलती रहीं
बन्दूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम उतार पर
होता था हमारा संशय
हमें कोंचता था।
हम उत्तेजित होकर
पूछते थे - यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होतीं थीं
शब्दों के जंगल में
हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
ज़ुबान से कम जूतों से
ज़्यादा पाटते थे
कभी वह हारता रहा…
कभी हम जीतते रहे…
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे…
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग-
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवायें मंगल गा रहीं हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
सख्त मना है।’
फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हासिये पर
लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद ,नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-
नफ़रत है।
साज़िश है।
अन्धेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द… सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ.. हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथाकलि’ की अमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता।
यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये, सबसे भद्दी गाली है
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है