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"ज़िन्दगी से-2 / मरीना स्विताएवा" के अवतरणों में अंतर

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14:30, 30 नवम्बर 2008 के समय का अवतरण

तुम ज़िन्दा नहीं पकड़ सकोगी मेरी आत्मा,
पंख की तरह वह आ नहीं सकेगी पकड़ में ।
ओ ज़िन्दगी, तू प्राय: ही तुक बनती है झूठी,
सुन, धोखा नहीं खा सकते कान गानेवाले के ।

तुम खोज नहीं हो किसी प्राचीन निवासी की,
जाने दो मुझे दूसरों के तट की ओर ।
ओ ज़िन्दगी, चर्बी से जुड़ती है तुम्हारी तुक
संभालो उसे, ज़िन्दगी ! तुम एक बोझ हो भारी मेरे लिए ।

पाँवों की हड्डियों पर निष्ठुर अंगूठियाँ
हड्डियों तक भी लग रही है जंग ।
थक गई है इन्तज़ार करते-करते
ज़िन्दगी की छुरियों पर नाचती प्रेयसी ।


रचनाकाल : 28 दिसम्बर 1924

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह