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"साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ३" के अवतरणों में अंतर

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लगे बालक-सदृश नृप वृद्ध रोने,
 
लगे बालक-सदृश नृप वृद्ध रोने,
 
विगत सर्वस्व सा समझा उन्होंने!
 
विगत सर्वस्व सा समझा उन्होंने!
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कहा इस ओर अग्रज से अनुज ने,
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पकड़ उनके चरण उस दीर्घभुज ने--
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"वही हो जो तुम्हें हो ईष्ट मन में;
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बने नूतन अयोध्या नाथ वन में!
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भले ही दैव का बल दैव जाने,
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पुरुष जो है न क्यों पुरुषार्थ माने?
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हुआ; कुछ भी नहीं मैं जानता हूँ,
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तुम्हें जो मान्य है सो मानता हूँ।
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बिदा की बात किससे और किसकी?
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अपेक्षा कुछ नहीं है नाथ! इसकी।
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मुझे यदि मारना है, मार डालो,
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निकालो तो न जीते जी निकालो।
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प्रभो! रक्खो सदा निज दास मुझको,
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कि निष्कासन न हो गृह-वास मुझको।
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अयोध्या है कि यह उसका चिता-वन?
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करुँगा क्या यहाँ मैं प्रेत-साधन?"
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"अरे, यह क्या"--कहा प्रभु ने कि "यह क्या?
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समझते हो बिदा को तुम विरह क्या?
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तुम्हें क्या योग्य है उद्वेग ऐसा?
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सुनो, जो चित्त में है, दूर कैसा?
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पिता हैं और हैं माता यहाँ पर,
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भरत-शत्रुघ्न-से भ्राता यहाँ पर।
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अनुज! रहना उचित तुमको यहीं है,
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यहाँ जो है त्रिदिव में भी नहीं है।
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मुझे वन में न कुछ आयास होगा,
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सतत मुनि-वृन्द का सहवास होगा।
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पिता की ओर देखो, धर्म पालो,
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अरे, मूर्च्छित हुए फिर वे, सँभालो!"
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20:53, 13 जनवरी 2010 का अवतरण

बड़ों की बात है अविचारणीया,
मुकुट-मणि-तुल्य शिरसा धारणीया।
वचन रक्खे बिना जो रह न सकते,
तदपि वात्सल्य-वश कुछ कह न सकते,
उन्हीं पितृदेव का अपमान लक्ष्मण?
किया है आज क्या कुछ पान लक्ष्मण!
उऋण होना कठिन है तात-ऋण से;
अधिक मुझको नहीं है राज्य तृण से।
मनःशासक बनों तुम, हठ न ठानो,
अखिल संसार अपना राज्य जानो।
समझलो, दैव की इच्छा यही है;
करे जो कुछ कि वह होता वही है।
मुझे गौरव मिला है आज, आओ,
बिदा देकर, प्रणय से, जी जुड़ाओ।"
बढ़ीं तापिच्छ-शाखा-सी भुजाएँ--
अनुज की ओर दायें और बायें।
जगत् संसार मानों क्रोड़गत था;
क्षमा-छाया तले नत था, निरत था।
मिटा सौमित्रि का वह कोप सारा,
उमड़ आई अचानक अश्रु-धारा।
पदाब्जों पर पड़ें वे आप जब तक--
किया प्रभु ने उन्हें भुजबद्ध तब तक।
मिले रवि-चन्द्र-सम युग बन्धु ज्यों ही,
अमा का तम चतुर्दिक देख त्यों ही,
लगे बालक-सदृश नृप वृद्ध रोने,
विगत सर्वस्व सा समझा उन्होंने!

कहा इस ओर अग्रज से अनुज ने,
पकड़ उनके चरण उस दीर्घभुज ने--
"वही हो जो तुम्हें हो ईष्ट मन में;
बने नूतन अयोध्या नाथ वन में!
भले ही दैव का बल दैव जाने,
पुरुष जो है न क्यों पुरुषार्थ माने?
हुआ; कुछ भी नहीं मैं जानता हूँ,
तुम्हें जो मान्य है सो मानता हूँ।
बिदा की बात किससे और किसकी?
अपेक्षा कुछ नहीं है नाथ! इसकी।
मुझे यदि मारना है, मार डालो,
निकालो तो न जीते जी निकालो।
प्रभो! रक्खो सदा निज दास मुझको,
कि निष्कासन न हो गृह-वास मुझको।
अयोध्या है कि यह उसका चिता-वन?
करुँगा क्या यहाँ मैं प्रेत-साधन?"
"अरे, यह क्या"--कहा प्रभु ने कि "यह क्या?
समझते हो बिदा को तुम विरह क्या?
तुम्हें क्या योग्य है उद्वेग ऐसा?
सुनो, जो चित्त में है, दूर कैसा?
पिता हैं और हैं माता यहाँ पर,
भरत-शत्रुघ्न-से भ्राता यहाँ पर।
अनुज! रहना उचित तुमको यहीं है,
यहाँ जो है त्रिदिव में भी नहीं है।
मुझे वन में न कुछ आयास होगा,
सतत मुनि-वृन्द का सहवास होगा।
पिता की ओर देखो, धर्म पालो,
अरे, मूर्च्छित हुए फिर वे, सँभालो!"