"रानी क्यों रूठी ! / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर
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रानी क्यों रूठी ! | रानी क्यों रूठी ! | ||
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राजा क्यों टूटा ! | राजा क्यों टूटा ! | ||
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क्यों कौंधी थी बिजली ? वगैरह,वगैरह ..... | क्यों कौंधी थी बिजली ? वगैरह,वगैरह ..... | ||
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बड़े अजीब से सवाल हैं ! | बड़े अजीब से सवाल हैं ! | ||
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हमें कभी नहीं लगता कि इनका जबाव देना चाहिए | हमें कभी नहीं लगता कि इनका जबाव देना चाहिए | ||
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हम सवालों को अपनी सुविधा और रूचि के अनुसार चाहते है | हम सवालों को अपनी सुविधा और रूचि के अनुसार चाहते है | ||
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पंक्ति भले ही गद्यात्मक हो | पंक्ति भले ही गद्यात्मक हो | ||
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पर सच है | पर सच है | ||
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एक कमजोर और पिल-पिला सा सच | एक कमजोर और पिल-पिला सा सच | ||
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कि हम सवाल को अपने मुताबिक चाहते हैं | कि हम सवाल को अपने मुताबिक चाहते हैं | ||
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इस दिवालिया-पन से हम उकताते नहीं | इस दिवालिया-पन से हम उकताते नहीं | ||
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ऐन मौके पर हम | ऐन मौके पर हम | ||
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धर्म या विचार की गठरी में अपना मुंह छुपा लेते है | धर्म या विचार की गठरी में अपना मुंह छुपा लेते है | ||
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मसलन, भारतीय हो जाते हैं, हिन्दू अथवा कम्युनिस्ट हो जाते हैं | मसलन, भारतीय हो जाते हैं, हिन्दू अथवा कम्युनिस्ट हो जाते हैं | ||
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ऐसा सिर्फ सवालों से उकता कर किया जाता है | ऐसा सिर्फ सवालों से उकता कर किया जाता है | ||
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परंपरा पुरानी है, व्यवसाय भी पुराना है | परंपरा पुरानी है, व्यवसाय भी पुराना है | ||
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यानि सवालों से आँखें चुराना भी नहीं है आज का मसला | यानि सवालों से आँखें चुराना भी नहीं है आज का मसला | ||
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राजा टूटा तो टूटा | राजा टूटा तो टूटा | ||
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रानी रूठी तो रूठी | रानी रूठी तो रूठी | ||
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किसी वजह से कौंधी हो बिजली | किसी वजह से कौंधी हो बिजली | ||
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मेरी बला से ! | मेरी बला से ! | ||
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मेरे धर्म या विचार में इस सवाल का तो कोई महत्त्व ही नहीं | मेरे धर्म या विचार में इस सवाल का तो कोई महत्त्व ही नहीं | ||
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फिर मैं क्यों सर खपाऊं ! | फिर मैं क्यों सर खपाऊं ! | ||
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09:59, 20 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
रानी क्यों रूठी !
राजा क्यों टूटा !
क्यों कौंधी थी बिजली ? वगैरह,वगैरह .....
बड़े अजीब से सवाल हैं !
हमें कभी नहीं लगता कि इनका जबाव देना चाहिए
हम सवालों को अपनी सुविधा और रूचि के अनुसार चाहते है
पंक्ति भले ही गद्यात्मक हो
पर सच है
एक कमजोर और पिल-पिला सा सच
कि हम सवाल को अपने मुताबिक चाहते हैं
इस दिवालिया-पन से हम उकताते नहीं
ऐन मौके पर हम
धर्म या विचार की गठरी में अपना मुंह छुपा लेते है
मसलन, भारतीय हो जाते हैं, हिन्दू अथवा कम्युनिस्ट हो जाते हैं
ऐसा सिर्फ सवालों से उकता कर किया जाता है
परंपरा पुरानी है, व्यवसाय भी पुराना है
यानि सवालों से आँखें चुराना भी नहीं है आज का मसला
राजा टूटा तो टूटा
रानी रूठी तो रूठी
किसी वजह से कौंधी हो बिजली
मेरी बला से !
मेरे धर्म या विचार में इस सवाल का तो कोई महत्त्व ही नहीं
फिर मैं क्यों सर खपाऊं !