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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ३

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बड़ों की बात है अविचारणीया,
मुकुट-मणि-तुल्य शिरसा धारणीया।
वचन रक्खे बिना जो रह न सकते,
तदपि वात्सल्य-वश कुछ कह न सकते,
उन्हीं पितृदेव का अपमान लक्ष्मण?
किया है आज क्या कुछ पान लक्ष्मण!
उऋण होना कठिन है तात-ऋण से;
अधिक मुझको नहीं है राज्य तृण से।
मनःशासक बनों तुम, हठ न ठानो,
अखिल संसार अपना राज्य जानो।
समझलो, दैव की इच्छा यही है;
करे जो कुछ कि वह होता वही है।
मुझे गौरव मिला है आज, आओ,
बिदा देकर, प्रणय से, जी जुड़ाओ।"
बढ़ीं तापिच्छ-शाखा-सी भुजाएँ--
अनुज की ओर दायें और बायें।
जगत् संसार मानों क्रोड़गत था;
क्षमा-छाया तले नत था, निरत था।
मिटा सौमित्रि का वह कोप सारा,
उमड़ आई अचानक अश्रु-धारा।
पदाब्जों पर पड़ें वे आप जब तक--
किया प्रभु ने उन्हें भुजबद्ध तब तक।
मिले रवि-चन्द्र-सम युग बन्धु ज्यों ही,
अमा का तम चतुर्दिक देख त्यों ही,
लगे बालक-सदृश नृप वृद्ध रोने,
विगत सर्वस्व सा समझा उन्होंने!