भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वही-वही / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:57, 17 अक्टूबर 2010 का अवतरण ("वही-वही / केदारनाथ अग्रवाल" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
वही-वही
पीर और पानी की,
प्राकृत कुरबानी की-
नेह और नाते की नदिया,
गाँव के किनारे से-
घर-घर के द्वारे से-
निचुड़-निचुड़
बहती है,
लरज-गरज सहती है,
जग-बीती कहती है।
रचनाकाल: ०२-१२--१९७८