भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ ऐसे साज़ को हमने बजाके छोड़ दिया / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:29, 4 जुलाई 2011 का अवतरण
कुछ ऐसे साज को हमने बजाके छोड़ दिया
सुरों को और सुरीला बनाके छोड़ दिया
मिलन की प्यास को इतना बढ़ाके छोड़ दिया
कृपा की डोर को छोटा बना के छोड़ दिया
तड़प के आ गयी मंज़िल हमारे पाँव के पास
लगन को इतनी बुलंदी पे लाके छोड़ दिया
बहुत-से ऐसे भी जीवन में आ चुके हैं मोड़
जब उनके नाम को होठों पे लाके छोड़ दिया
लहर हैं वह जिसे कोई भी किनारा न मिला
वो धुन हैं हम जिसे कोयल ने गाके छोड़ दिया
गुलाब, ऐसे ही खिलते है हम किसीने ज्यों
दिया जला के मुक़ाबिल हवा के छोड़ दिया