भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सहरा से पाती / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:16, 30 जनवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेशमा हिंगोरानी |संग्रह= }} {{KKCatNazm}} <poem> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मेहराब-ए-माह से,
हर तारा,
तीर बन के चला,
कोई नावक-ए-नीमकश,
तो कोई तन के चला !
फ़लक के वार सभी ठीक,
निशाने पे चले,
सिसकियाँ भरता रहा दिल,
उसी शजर के तले,
कि जिसकी सूखी शाख पर,
सजे हुए पत्ते,
रोज़ ही बैठते, खामोश,
निगाहें बाँधे...
कोई तो तीर,
बादलों के भी,
सीनों पे चलें,
कभी उनसे भी बरस जाएँ,
शबनमी बूँदें,
कभी तो अपना भी वीराना,
हो आबाद यहाँ !
31.07.93