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रोज़ थोड़ा पिघल रहा हूं मैं / ध्रुव गुप्त

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हम हाज़िर हैं हाथ उठाए
सपना जहां, जिधर ले जाए

दरवाज़े पर आस टंगी है
खिड़की पर लटके हैं साए

तन्हाई में शोर था कितना
चीखो तो आवाज़ न आए

हम सड़कों पे खड़े रह गए
सड़कों ने कल धूल उड़ाए

हर कंधे पर बोझ है कितना
कौन कहां दो ख़्वाब टिकाए

उतनी क़ीमत है खुशियों की
हमने जितने दर्द कमाए

एक तसव्वुर तो ऐसा हो
सर रख दूं तो नींद आ जाए

दिल सबके शीशे जैसे हों
दर्द उठे तो आंख नहाए

आज चैन से जी लेने दो
क़सम उसे जो याद आ जाए