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गाँव की चिट्ठी / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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भीगे राधा के नयन, तिरते कई सवाल ।

कभी न ऊधौ पूछता, ब्रज में आकर हाल।।1


चिट्ठी अब आती नहीं, रोज सोचता बाप।

जब- जब दिखता डाकिया, और बढ़े संताप ।।2


रह रहकर के काँपते, माँ के बूढे़ हाथ ।

बूढ़ा पीपल ही बचा, अब देने को साथ ।।3


बहिन द्वार पर है खड़ी, रोज देखती बाट ।

लौटी नौकाएँ सभी, छोड़- छोड़कर घाट ।।4


आँगन गुमसुम है पडा़, द्वार गली सब मौन ।

सन्नाटा कहने लगा, अब लौटेगा कौन ।।5


नगर लुटेरे हो गये, सगे लिये सब छीन ।

रिश्ते सब दम तोड़ते, जैसे जल बिन मीन ।।6


रोज काटती जा रही, सुधियों की तलवार।

छीन लिया परदेस ने, प्यार- भरा परिवार।।7


वह नदिया में तैरना, घनी नीम की छाँव।

रोज रुलाता है मुझे, सपने तक में गाँव।।8


हरियाली पहने हुए, खेत देखते राह ।

मुझे शहर मे ले गया, पेट पकड़कर बाँह।।9


डबडब आँसू हैं भरे, नैन बनी चौपाल ।

किस्से बाबा के सभी, बन बैठे बैताल ।।10


बँधा मुकददर गाँव का, पटवारी के हाथ।

दारू -मुर्गे के बिना तनिक न सुनता बात।।11