भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सफ़र / मरीना स्विताएवा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:47, 23 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मरीना स्विताएवा |संग्रह=आएंगे दिन कविताओं के / म...)
ख़ानाबदोशों का शुरू हो गया सफ़र
कब्रों की दुनिया में
रात की ज़मीन पर
टहल रहे हैं पेड़,
सुनहली मदिरा की तरह
अंगूरों के झूम रहे हैं गुच्छे,
घर से घर की ओर यात्रा करते ये- तारे हैं
नए सिरे से रास्ता बनाती ये- नदियाँ हैं ।
मुझे इच्छा हो रही है
तुम्हारे पास आने
और तुम्हारी छाती पर सिर रखने की ।
रचनाकाल : 14 जनवरी 1917
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह