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कांपि-कांपि उठत करेजौ कर चांपि-चांपि / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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कांपि-कांपि उठत करेजौ कर चांपि-चांपि
उर ब्रजवासिनि के ठिठुर ठनी रहै ।
कहै रतनाकर न जीवन सुहात रंच
पाला की पटास परी आसनि घनी रहै ॥
वारिनि में बिसद बिकास न प्रकास करै
अलिनि बिलास में उदासता सनी रहै ।
माधव के आवन की आवतिं न बातैं नैकु
नित प्रति तातैं ऋतु सिसिर बनी रहै ॥92॥