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घोर जनरव / शिवशंकर मिश्र
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घोर जनवर,
और उत्सरव,
रोज चारों ओर!
ओर भटकी साँझ कोई,
और भूली भोर!
यही सब कुछ रोज-रोज,
खोखले, मुँहखुले सारे लोग,
नफरतों की तह लगी खामोश,
जिंदगी ज्यों बन गयी है रोग;
कौन किस की बात पूछे,
कौन किस की सुन जरा ले,
प्याकर जैसे हो लुटेरा,
मित्रताएँ चोर!
स्वारर्थ सब लम्बेट हुए, सिद्धांत बौने,
भावनाएँ ठगी- अटकी रह गयीं,
हो गए प्रतिमान नैतिकता के ढुलमुल,
मान्य ताएँ तेज जल में बह गयीं;
पथों पर मुहँजोर नारे,
और भूखे, बेसहारे,
हर सफल संघर्ष के मुँह पर नकाब,
ओर पीछे शोर!