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फिलहाल / स्वाति मेलकानी
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तुम बस आती रहो जिन्दगी
देखूं आगे क्या लाती हो।
थोड़ा ठहरो,
मैं खुद पर हावी हो जाऊँ।
जाचूँ, कितनी गहरी पहुँच सकी हूँ मैं
धरती के भीतर
धँसी हुई हूँ मैं फिलहाल
अपने पैरो में गढ़वाई
लम्बी कीलों से।
गीला सा दलदल है
और बढ़ता जाता है।