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बादल / अलेक्सान्दर पूश्किन

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»  बादल

वात-बवंडर बिखर चुका है, गगन हुआ निर्मल,
नीले नभ में दौड़ रहे अब एक तुम्हीं बादल,
हर्षमगन हो उजला-उजला दिन है मुस्काया,
उस पर केवल डाल रहे हो, तुम ही दुख-छाया।

कुछ पहले नभ ओर-छोर तक, तुम ही थे छाए
कड़क, कौंध बिजली की तेरी तुमको धमकाए,
थी रहस्य से भरी हुई तब तेरी घन-वानी
तप्त धरा की प्यास बुझाई, बरसाकर पानी।

बस काफ़ी है, अब तुम जाओ! वह क्षण बीत गया
धरती सरस हुई, झंझ्हा का, अब बल रीत गया,
और पवन जो मन्द-मन्द, तरू, पत्ते सहलाए
सान्त गगन से तुझे उड़ा निश्चय ही ले जाए।


रचनाकाल : 1823