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घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं / कुमार अनिल

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घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं ।
चिराग बनके अँधेरों में जल रहा हूँ मैं ।

तेरे ख़याल की उँगली पकड़ के दोस्त मेरे,
ग़ज़ल की वादी में कब से टहल रहा हूँ मैं ।

मैआर ऊँचा है सच का, खुलूस का माना,
मगर ये मान के ख़ुद को ही छल रहा हूँ मैं ।

न कारवाँ की ज़रूरत, न रहबरों से गरज,
जुनूने शौक में तन्हा ही चल रहा हूँ मैं ।

जहाँ पर सुबह के सूरज से हँस रहे हो तुम,
वहीं पर चाँद की मानिन्द गल रहा हूँ मैं ।

कभी ख़याल, कभी ख़्वाब की ख़लिश बनकर,
तुम्हारी नींदों में अक्सर ख़लल रहा हूँ मैं ।

मैं इक शज़र हूँ, बहारों के जश्न की ख़ातिर,
बदन पे सब्ज ये पत्ते बदल रहा हूँ मैं ।