भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कई सहस्र स्वप्नों के बीच / अनिल जनविजय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकारः अनिल जनविजय

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


कई सहस्र

स्वप्नों के बीच

एक सपना वह

था नितान्त अपना वह


देखा मैंने--

धीरे से एक अणु उतरा

चिपक गया उससे आ डिम्ब

फिर उभरा उनके पीछे से

हम दोनों का मिश्रित प्रतिबिम्ब


(2000)