भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम आयी / आलोक श्रीवास्तव-२

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:19, 3 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२ |संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्राचीन जंगलों से होकर गुजरती
हवा की तरह था
तुम्हारा आना

झरनों के शोर की तरह थी
तुम्हारी हंसी

ख़ामोश पानी की तरह परछाईयों का
इंतजार करती थीं
तुम्हारी आँखें

रात
रात की तरह थे
अंधियाला लिए
तुम्हारे केश

बेचैन हिरने की तरह
तुम आईं चपल पैरों
जलते पठार, हरे मैदान तय करतीं

मुक्त
मुक्त हंसी, मुक्त आँखें
समूची प्रकृति से संगत करतीं
उन्मुक्त तुम्हारी काया
सब
स्वप्न सरीखे थे

एक छ्तनार पेड़ की तरह थी
तुम्हारी दुनिया
अपनी जद की धरती पर
पत्तों की अल्पना रचती
स्वागत करती धूप का, किरनों का ।