Last modified on 21 मार्च 2011, at 09:55

अप्राप्य वसंत / आलोक श्रीवास्तव-२

Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:55, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२ |संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम एक ऐसा अप्राप्य वसंत बन गईं
जिसकी पगछाप
वनथलियों में कहीं नहीं थी

जबकि बौर तुममें महके थे
नदी तुममें उमड़ी थी
कोई कूज़न था वहां
कोई टेर थी

पर सब कुछ जैसे मिथक हो सुदूर का
तुम्हारा रूप रूप नहीं
एक स्वप्न का कल्पित चित्र हो महज

ज़रूर कोई इंद्रजाल था
या सरोवर के पानी का माया-कुहुक
कि रंगों के, फूलों के, गंध के
ऐसे अटूट ज्वार के बावजूद
तुम एक ऐसा अप्राप्य वसंत बन गईं
जिसकी पगछाप
वनथलियों में कहीं नहीं थी ।