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वसन्त विभ्रम / केशव शरण

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खेतों में
खिली सरसों है
या हवा में लहराता पीला पल्लू ?
देखूँ भी तो क्या देखूँ ?
मेरी पलकों पर छाया तो वही है हर सू !

सुनूँ भी तो क्या सुनूँ ?
सुनूँ बस अपनी ही साँसों का सरगम
जबकि सरसरा रहे होते हैं
सरसों के फूल
हवा में मद्धम-मद्धम

समझूँ भी तो क्या समझूँ ?
कल्पना में ही होकर रह जाएगा मिलन हमारा
या मिलेंगे हम वास्तविकता में
इस बार
इस वासंतिक वाटिका में