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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 8

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रामप्रेम ही सार है-8

 (51)

जबै जमराज-रजायसतें मोहि लै चलिहैं भट बाँधि नटैया।
तातु न मातु , न स्वामि-सखा, सुत-बंधु बिसाल बिपत्ति-बँटैया।।

साँसति घोर, पुकारत आरत कौन सुनै, चहुँ ओर डटैया।
एकु कृपाल तहाँ ‘तुलसी’ दसरत्थको नंदनु बंदि-कटैया। ।

(52)

जहाँ जमजातना , घोर नदी, भट कोटि जलच्चर दंत टेवैया।
जहँ धार भयंकर, वार न पार , न बोहितु नाव , न नीक खेवैया।

‘तुलसी’ जहँ मातु-पिता न सखा, नहिं कोउ कहूँ अवलंब देवैया।
तहाँ बिनु कारन रामु कृपालु बिसाल भुजा गहि काढ़ि लेवैया।।