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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 10

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रामप्रेम ही सार है-10

 (55)

जप, जोग ,बिराग, महामख-साधन, दान, दया, दम कोटि करै।
मुनि-सिद्ध, सुरेसु, गनेसु, महेसु-से सेवत जन्म अनेक मरै।।

निगमागम-ग्यान, पुरान पढ़ै, तपसानल में जुगपुंज जरै।
मनसों पनु रोपि कहै तुलसी, रघुनाथ बिना दुख कौन हरै।।

(56)

 पातक-पीन , कुदारिद-दीन मलीन धरैं कथरी-करवा है।
लोकु कहै , बिधिहूँ न लिख्यो सपनेहुँ नहीं अपने बर बाहैं ।।

रामको किंकरू सो तुलसी, समुझेहि भलो, कहिबो न रवा है।
ऐसेको ऐसो भयो कबहूँ न भजे बिनु बानरके चरवाहै।।