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बेकारी के क्षणों में / शलभ श्रीराम सिंह

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शहर में
कौवे नहीं रह गए !
आओ !
छत पर खड़े होकर
राहगीरों पर पत्थर फेंकें !
उनकी झुँझलाहट पर हँसे !
तालियाँ बजायें
और गालियाँ सुनें !

आओ ! आओ !! आओ !!!
हमारा होना जानकर
छत पर
कोई भी लड़की
बाल सुखाने के लिए
नहीं आयेगी !
खिड़की से सट कर बैठा कवि
नोबुलप्राइजी सपनों की लाश पर
एलिजी पढ़ता हुआ उठ जाएगा !
आओ छत पर खड़े होकर
राहगीरों पर पत्थर फेंकें !
शहर में कौवे नहीं रह गए अब !
(१९६४)