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घरौंदा / एम० के० मधु
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एक स्त्री
अपने जीवन के
मध्याह्न पायदान पर
घरौंदा-घरौंदा खेलती है
खुद बनाती है
रंगों से सजाती है
फिर बड़ी बेरहमी से तोड़ देती है
यह खेल वह
बार-बार दुहराती है
लोग बोलते हैं
उसके अन्दर
कोई नटखट बच्चा घुस गया है
मैं बोलता हूं
उसका दिमाग
किसी शातिर महाजन के यहां
गिरवी हो गया है।