छिपे दरारों में अजगर थे,
हाथी छिपे पहाड़ों में थे।
छिपे सरपतों में अरने थे,
हरिण कँटीले झाड़ों में थे॥
पर सवार को ध्यान न कुछ भी,
औरों के छिपने भगने का।
केवल उसको ध्यान लक्ष्य पर
ठीक निशाने के लगने का॥
भगते भगते खड़े हो गए,
थकी मृगी, मृग थका बिचारा।
कंपित तन मन, शिथिल अंग थे,
साँसों का रह गया सहारा॥
दोनों की आँखों से टप टप,
दो दो बिंदु गिरे आँसू के।
सूख गए पर हाय वहीं पर,
सन सन सन बहने से लू के॥
दोनों ने रावल से माँगी,
मौन – मौन भिक्षा प्राणों की।
क्षण भर भी पूरी न हो सकी,
पर इच्छा उन म्रियमाणों की॥
एक हाथ मारा सवार ने,
दोनों दो दो टूक हो गए।
चीख चीख वन की गोदी में,
धीरे - धीरे मूक हो गए॥
मृग – शोणित के फौवारों से,
मही वहाँ की लाल हो गई।
हाय, क्रूर तलवार रतन की,
दो प्राणों की काल हो गई॥
तुरत किसी ने कानों में यह
धीरे से संदेश सुनाया।
उतने श्रम के बाद अभागे
जीवन का बस अंत कमाया॥
यही नहीं, तेरे अघ से जब
विपिन – मेदिनी डोल रही है;
व्याकुल सी तेरे कानों में,
वनदेवी जब बोल रही है;
तो हत्या यह क्या न करेगी,
राजपूत - बलिदान करेगी।
यह घर – घर ब्रह्माग्नि लगाकर,
सारा पुर वीरान करेगी॥
चिता पद्मिनी की धधकेगी,
सारा अग – जग काँप जाएगा।
साथ जलेंगी वीर नारियाँ,
महा प्रलय भव भाँप जाएगा॥
विरह पद्मिनी का कानों से
सुनकर हय पर रह न सका वह।
गिरा तुरत मूर्छित भूतल पर
विरह – वेदना सह न सका वह॥
कहीं म्यान, शमशीर कहीं पर,
कहीं कुंत, तो तीर कहीं पर।
बिखर गए सामान रतन के,
कहीं ताज, तूणीर कहीं पर॥
घोड़ा चारों ओर रतन के
चक्कर देकर लगा घूमने।
सजल नयन हय मूर्छित प्रभु को
सूँघ सूँघकर लगा चूमने॥
विकल हींसता, पूँछ उठाकर
घूम रहा था सतत वृत्त में।
पड़ा मही पर रतन बिंदु – सा,
आग लगी थी तुरग - चित्त में॥
कभी मृगों की ओर दौड़ता,
कबी दौड़ता रतन - ओर था।
कभी कदम तो कभी चौकड़ी,
अश्व स्वेद से शराबोर था॥
इतने ही में पीछा करते,
आ पहुँचे अरि – क्रूर – गुप्तचर।
चपला – सी चमकीं तलवारें,
भिड़े वाजि से शूर गुप्तचर॥
हय था थका दौड़ने से, पर
सबको चकनाचूर कर दिया।
गुप्तचरों को क्षणभर में ही
भगने को मजबूर कर दिया॥
खूँद खूँदकर चट्टानों को
पर्वत की भी धूल उड़ा दी।
विजय – वात अरि – गुप्तचरों में
अपने ही अनुकूल उड़ा दी॥
एक दूसरी टोली आई,
बोल दिया धावा घोड़े पर।
पड़े अश्व - शोणित के छींटे
पर्वत के रोड़े रोड़े पर॥