भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो शब्द थे हम / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:32, 25 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=हरापन नहीं टूटेग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूल जाना तुम !
एक खाली जगह के
दो शब्द थे हम
(मौसम)
जिन्हें पढ़ता था मिलाकर
उन दिनों को सिर हिलाकर
                    भूल जाना तुम !

भूल जाना
भूख में जैसे कभी रोटी चुराई थी
भूल जाना
कसे बन्धन में कभी जो क़सम खाई थी
बैठ दुहरी छाँह में गुम-सुम
अकारण घास के तिनके उठाना
भूल जाना तुम !

भूल जाना
वह छुअन जो धुल नहीं पाई नहाने से
भूल जाना
जो न भूला जा सका ओछे बहाने से
एक मद्धिम आँच के साँचे ढले वे दिन
जो न हो पाए अभी तक गुम
                       भूल जाना तुम !

भूल जाना
एक ताज़ी उम्र का रस, रूप, गन्धित मन
भूल जाना
एक नँगी बाँह का घेरा, बदन चन्दन
भूल जाना, भूल जाना, रेत का कुमकुम
एक खाली जगह के दो शब्द थे हम
                           भूल जाना तुम !