भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाल से आगे / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:48, 26 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=हरापन नहीं टूटेग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन हमें जो तोड़ जाते हैं
वे इकहरे आदमी से जोड़ जाते हैं

पेट की पगडंडियों के
जाल से आगे
टूट जाते हैं जहाँ पर
ग्लोब के धागे
उस मनुजता की सतह पर छोड़ जाते हैं

हम स्वयं संसार होकर
हम नहीं होते
फूटते हैं रोशनी के
इस कदर सोते
हर जगह से देह-पर्वत फोड़ जाते हैं
               दिन हमें जो तोड़ जाते हैं