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सृजन-सरिते ! / रमेश रंजक
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सागर चार क़दम
सरिते ! सूख न जाना
धरती बड़ी गरम
अपमानित औरत-सी बिफ़रे चारों ओर हवा
और जुझारू सूरज को भी मार गया लकवा
रात हुई छोटी
दिन लम्बे
औंधे पड़ नियम
ऊँचाई से गहराई तक पिघल, सँभल कर चल
थाह टटोल रही है कच्चे कानों की हलचल
तोड़ घिराव
मोड़ दे गति को
यति हो जाए अगम
सरिते !
सागर चार क़दम