भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रविवारे मत आना / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:43, 26 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=हरापन नहीं टूटेग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझ निर्धन का धन है
एक दिन
रविवारे मत आना

धीमी दिनचर्या के
आस-पास अपनापन
दर्पण का एक वचन
              मुश्किल से मिलता है
साँचे का लौह-बदन
एक दिन पि-घ-ल-ता है

और किसी दिन चाहे आ जाना
मत आना, रविवारे मत आना