54 साल बाद माह-ए-तमाम को ग्रहण / रेशमा हिंगोरानी
सहम गई थी देख कर मैं चाँद का चेहरा,
अजब से पैरहन में कर रहा था वो फेरा,
न जाने कितने ही सायों ने था उसे घेरा!
किए सवाल परेशान कल कई मुझको...
क्या अंधेरों में ही रातों की गुज़र होने चली?
फलक की शम्मा मूँह छिपाए कहाँ सोने चली?
क्या इब्तिदा-ए-इंतिहा-ए-जहाँ होने चली?
तभी रौशन हुआ समाँ,
औ’ देखा पहलू में,
माह-ए-ताबाँ की,
पहले से भी,
उम्दा थी चमक!
मिलीं नज़रें तो
मुख़ातिब हो मुझसे,
कहने लगा:
(मगर जवाब सवालों की शक्ल में आए!)
“कहाँ थी तू,
जो मैं पिघला किया
आगोश-ए-समा?
कहाँ थी फिक्र मेरी,
तू थी कहीं और बसी!
शब-ए-हिज्राँ,
यहाँ भी सोने कहाँ देती थी!"
सँभलने भी न पाई थी, कि वो आगे बोला:
“ज़रा सी ग़र्द-ए-राह ले के
ज़मीं से ही उधार,
सँवारने में लगा तथा मैं अपना
नक्श-ओ-निगार!
उसी मसरूफीयत में बदगुमानी तुझको हुई!