भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कील / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:08, 21 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिन चौधरी }} {{KKCatKavita}} <poem> माकूल जगह ढू...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माकूल जगह ढूँढ कर हमें
ठीक बीचों बीच ठोक दिया
पहले पहल बुरा नहीं मनाया किसी ने
कंधों में दर्द की परते धीरे- धीरे जमती चली गई
जुबाने पहले कंपकपाई फिर बंद होने के कागार तक पहुँच गयी
बहुत बाद में काली आँखों वाला डर हमारा हमदम बन गया
कील का नुकीला सिरा बार बार अपने होने का अहसास कराने लगा
 
टाँग दिया गया हम पर
दुत्कार, अपमान, लांछनओ का भार
हमारे दामन को सफेद नहीं रहनें दिया कभी
घाट पर घिस-घिस के धोया हमने खुद को
पर हर बार कालिख बची रह गयी
 
हमारी फटी एडियाँ देखी तुंम्नें ?
ज़रा मिलाना इन्हें अपने पावों से
जो चकाचक रहते है तुम्हारे कडकडाते जूतों में
 
अपने जंग खाए हुये जीवन से ही
मालुमात हुआ कि स्कैप से ज्यादा
कुछ नहीं समझा गया हमें
जो धोने, बिछाने, माँजनें और प्रतीक्षा का काम हम करती रही है उसे
शुन्य जान कर खारिज़ किया जाता रहा
 
वह तो रुखसत होता समय कई बात चुपके से कान में कह गया
नहीं तो हम में से कई जान नहीं पाती अपने ही बगलगीरों की मक्कारियाँ
कुछ चीज़े यहाँ तक की आईना भी हमारे शक का कारण बना
 
चक्रवात के आमने सामने बैठ कर जीवन का जो मुहावरा गढ़ा हमने
उसे सीधे सीधे बाँच लिया
तुम्हारी नजरों से बचा कर
 
हमारी पूरी जमात ने हर बार तुम्हारे ही सपनें देखे
यकिन मानों तुम्हारे सपनें ही हसीन थे
तुम नहीं
 
जो पाठ हमारी दादी पडदादियों ने हमें सिखाया
तमाम उलटबासीयों और खीँच- तान के बाद भी वह अपनी पकड बनाये रहा
एक मजबूत खूटें से बंधा रहना हमें सदा रास आता
न जाने हमारी तासीर कैसी थी
हम लात-घूसे भी खाती रही और
खिलखिलाती भी रहीं
 
हमारे नौनिहास आश्चर्य से हमें ताकते
और हम जैसा न बनने का प्रण लेते
इधर हमारा लोहा अपनी धार तेज़ करता रहा
भरभराई दीवार पर और मुस्तैदी से चस्पा होने के लिये।