भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विनयावली / तुलसीदास / पद 121 से 130 तक / पृष्ठ 3

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:38, 16 जून 2012 का अवतरण (पद 121 से 130 तक/ तुलसीदास/ पृष्ठ 3 का नाम बदलकर विनयावली / तुलसीदास / पद 121 से 130 तक / पृष्ठ 3 कर दिया गया ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद 125 से 126 तक

 (125)

मैं केहि कहौं बिपति अति भारी।
श्रीरघुबीर धीर हितकारी।1।

मम हृदय भवन प्रभु तोरा।
तहँ बसे आइ बहु चोरा।2।

तहँ कठिन करहिं बरजोरा।
मानहिं नहिं बिनय निहोरा।3।

तम, मोह, लोभ, अहँकारा।
मद, क्रोध, बोध-रिपु मारा।4।

 अति करहिं उपद्रव नाथा।
मरदहिं मोहि जानि अनाथा।5।

मैं एक, अमित बटपारा।
कोउ सुनै न मोर पुकारा।6।

भागेहु नहिं नाथ! उबारा।
रघुनायक, करहुँ सँभारा।7।

कह तुलसिदास सुनु रामा।
लूटहिं तसकर तव धामा।8।

 चिंता यह मोहिं अपारा।
अपजस नहिं होइ तुम्हारा।9।


(126)

मन मेरे , मानहिं सिख मेरी।
जो निजु भगति चहै हरि केरी।1।

उर आनहिं प्रभु-कृत हित जेते।
सेवहिं ते जे अपनपौ चेते।2।

दुख-सुख अरू अपमान-बड़ाई।
सब सम लेखहि बिपति बिहाई।3।

सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही।
जनि तेहि लागि बिदुषहि केही।4।

तुलसिदास बिनु असि मति आये।
मिलहिं न राम कपट-लौ लाये।5।