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आत्म-बोध / भाग 7 / मृदुल कीर्ति

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सकल देव गण ज्योतित जिससे, ब्रह्म कदापि न ज्योतित उनसे.
परम ब्रह्म ज्योतित निज सत्ता, एकमेव पर ब्रह्म इयत्ता॥६१॥

ज्योतित ब्रह्म स्वयं ब्रह्माण्डे, ज्योतित दिखत तभी तो पिण्डे.
तपत लौह वत चमकत कोई, तेज ब्रह्म को दिखत है सोई॥६२॥

ब्रह्म भिन्न सर्वथा अनोखा, तासों पृथक न कण भर देखा.
ब्रह्म सत्व बिन दिखत जो तथ्या, मृग मरीचिका के सम मिथ्या॥६३॥

ब्रह्म अद्वैतव सच्चिदानंदा, बिन सत ज्ञान न सत्य आनंदा.
जो कछु दिखत व् परत सुनाई, सकल परम ब्रहमं प्रभुताई॥६४॥

सार्वभौम अस्तित्व नियंता, ज्ञान चक्षु सों दिखत अनंता.
नयन हीन को सूरज जैसे, ज्ञानहीन को ब्रह्म भी वैसे॥६५॥

श्रवण मनन निदिध्यासन ध्याना, पावक ज्ञान सों, पावन ज्ञाना,
पावक ज्ञान तपत जस सोना, अथ तप 'अहं ब्रह्मास्मि' होना॥६६॥

ज्ञान सूर्य सम आत्म प्रकासा, हृद नभ उदित ज्ञान उद्भासा.
तम अज्ञान विनासत सोई, अखिल सृष्टि ज्योतिर्मय होई॥६७॥

दिशा, देश और काल विमुक्ता, शीत, उष्ण आभास ना भुक्ता,
स्वात्म-तीर्थ ध्यानी, भव मुक्ता, ब्रह्म ज्ञान परब्रह्म संयुक्ता॥६८॥