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मजमा जमा के बेच / अश्वनी शर्मा

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मजमा जमा के बेच
कुछ भी बना के बेच।

अहसास हो या रिश्ते
बोली लगा के बेच।

सपने रूमानियत के
रंगीं दिखा के बेच।

लाचारगी औ गुरबत
भौंहें चढ़ा के बेच।

गैरों को बेचना क्या
अपना बना के बेच।

और का ज़िस्म है ये
आधा दिखा के बेच।

गर मुल्क बेचना है
दामन बचा के बेच।