भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इधर संभलना उधर गिराना दिखता है / अश्वनी शर्मा

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:41, 1 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अश्वनी शर्मा |संग्रह=वक़्त से कुछ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


इधर संभलना उधर गिराना दिखता है
मर-मर कर वापिस जी जाना दिखता है।

इक बूढ़े चेहरे को पढ़ना आये तो
हर झुर्री में एक ज़माना दिखता है।

एक कहानी नानी की सुन जो सोता
उसे ख़्वाब में एक ख़जाना दिखता है।

बिस्तर की सलवट को कितना ठीक करो
जब चादर का रंग पुराना दिखता है।

जब कोई गुलशन की बातें करता है
मुझको तो बस एक बहाना दिखता है

कल तक वो सच्चा इंसा कहलाता था
गलियों में जो एक दीवाना दिखता है।

देख फिज़ा में ये दहशत का साया है
शहर नहीं अब गांव निशाना दिखता है।