भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिकुड़ गए दिन / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:22, 11 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र }} Category:कविता <poem> ठंड...' के साथ नया पन्ना बनाया)
ठंडक से
सिकुड़ गए दिन
हवा हुई शरारती - चुभो रही पिन
रंग सभी धूप के
हो गए धुआँ
मन के फैलाव सभी
हो गये कुआँ
कितनी हैं यात्राएँ - साँस रही गिन
सूनी पगडंडी पर
भाग रहे पाँव
क्षितिजों के पार बसे
सूरज के गाँव
आँखों में - सन्नाटों के हैं पल-छिन
बाँह में जमाव-बिंदु
पलकों में बर्फ
उँगलियाँ हैं बाँच रहीं
काँटों के हर्फ
धुंधों के खेत खड़ीं - किरणें कमसिन