भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गंगिया री, अति दूर समुन्दर / प्रतिभा सक्सेना
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:06, 27 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना }} <poem> नैहर की सुधि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
नैहर की सुधि आई, हो गंगिया नैहर की सुधि आई!
बिछुड़ गईं सब बारी भोरी!
संग सहिलियां आपुन जोरी
ऊँचे परवत जनमी काहे नीचे बहि आई!
उछल-बिछल, बल खाइत, विरमत खेलत आँख-मिचौली
वन घाटिन में दुकि इठलाइत, खिलि-खिल संग सहेली
नीर भरी छल-छल छलकाइत,
पल-पल मुड़ि-मुड़ि देखति .
बियाकुल लहर हिलोरत पल पल कइसन समुझाई!
परवत पितु की गोद, हिमानी आँचल केरी छाया,
इहाँ तपत तल, बहत निमन मन सहत,छीन भई काया .
सिकता सेज, अगम पथ आगिल,
नगर-गाम वन अनगिन,
गंगिया री अति दूर समुन्दर कइसन सहि पाई!