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हुस्न तेरा सुर्ज पे फ़ाजि़ल है / वली दक्कनी

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हुस्‍न तेरा सुर्ज पे फ़ाजि़ल है
मुख तिरा रश्‍क-ए-मात-ए-कामिल है

हुस्‍न के दर्स में लिया जो सबक़
मुझ नजिक फ़ाजिल-ओ-मुकम्मिल है

रात-दिन तुझ जमाल-ए-रौशन सूँ
फ़ज़्ल-ए-परवरदिगार शामिल है

जिसकूँ तुझ हुस्‍न की नईं है ख़बर
बेगुमाँ वो जहाँ में ग़ाफि़ल है

ज़ाद-ए-रह दिल सूँ जो बग़ल में लिया
इश्‍क़ के पंथ में वो आकि़ल है

इश्‍क़ की राह के मुसाफि़र कूँ
हर क़दम तुझ गली में मंजि़ल है

ऐ 'वली' तर्ज़-ए-इश्‍क़ आसाँ नहीं
आज़माया हूँ मैं कि मुश्किल है