भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंद आँखों से वो मंज़र देखूँ / 'अमीर' क़ज़लबाश

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:14, 1 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='अमीर' क़ज़लबाश }} {{KKCatGhazal}} <poem> बंद आँख...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बंद आँखों से वो मंज़र देखूँ
रेग-ए-सहरा को समंदर देखूँ

क्या गुज़रती है मेरे बाद उस पर
आज मैं उस से बिछड़ कर देखूँ

शहर का शहर हुआ पत्थर का
मैं ने चाहा था के मुड़ कर देखूँ

ख़ौफ़ तंहाई घुटन सन्नाटा
क्या नहीं मुझ में जो बाहर देखूँ

है हर इक शख़्स का दिल पत्थर का
मैं जिधर जाऊँ ये पत्थर देखूँ

कुछ तो अंदाज़-ए-तूफ़ाँ हो ‘अमीर’
नाव काग़ज़ की चला कर देखूँ