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इक परिंदा अभी उड़ान में है / 'अमीर' क़ज़लबाश
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इक परिंदा अभी उड़ान में है
तीर हर शख़्स की कमान में है
जिस को देखो वही है चुप-चुप सा
जैसे हर शख़्स इम्तिहान में है
खो चुके हम यक़ीन जैसी शय
तू अभी तक किसी गुमान में है
ज़िंदगी संग-दिल सही लेकिन
आईना भी इसी चटान में है
सर-बुलंदी नसीब हो कैसे
सर-निगूँ है के साए-बान में है
ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ जागते सोते
कोई आसेब इस मकान में है
आसरा दिल को इक उम्मीद का है
ये हवा कब से बाद-बान में है
ख़ुद को पाया न उम्र भर हम ने
कौन है जो हमारे ध्यान में है