भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बालू की बेला / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:19, 17 अक्टूबर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँख बचाकर न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला।

कहाँ मिलोगे? किसी विजन में? - न हो भीड़ का जब रेला॥

दूर! कहाँ तक दूर? थका भरपूर चूर सब अंग हुआ।

दुर्गम पथ मे विरथ दौड़कर खेल न था मैने खेला।

कुछ कहते हो \'कुछ दुःख नही\', हाँ ठीक, हँसी से पूछो तुम।

प्रश्न करो ढेड़ी चितवन से, किस किसको किसने झेला?

आने दो मीठी मीड़ो से नूपुर की झनकार, रहो।

गलबाहीं दे हाथ बढ़ाओ, कह दो प्याला भर दे, ला!

निठुर इन्हीं चरणों में मैं रत्नाकर हृदय उलीच रहा।

पुलकिल, प्लावित रहो, बनो मत सूखी बालू का वेला॥