Last modified on 26 जून 2013, at 15:33

बारिश / महेश वर्मा

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:33, 26 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश वर्मा }} {{KKCatKavita}} <poem> घर से निकलते...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

घर से निकलते ही होने लगती है वर्षा
थोड़ा बढ़ते ही मिटते जाते
कीचड़ में पिछले पदचिह्न
ढाँढ़स के लिए पीछे मुड़कर देखते ही
ओझल हो चुका होता है बचपन का घर।
घन-गर्जन में डूब जाती
माँ-बाबा को पुकारती आवाज़
पुकारने को मुँह खोलते ही
भर जाता है वर्षाजल
मिट रही आयु रेखाएँ त्वचा से
कंठ से बहकर दूर चला गया है मानव स्वर
पैरों से उतरकर कास की जड़ों में चली गई है गति।
अपरिचित गीली ज़मीन पर
वृक्ष सा खड़ा रह जाता आदमी
पत्रों पर होती रहती है बारिश।