स्त्री थी वह / विमलेश त्रिपाठी
अपने हिस्से के खामोश
शब्दों की बेचैनी को
उसने बाँध कर रख लिया
खोंईछे में बँधे चावल और हल्दी की तरह
कि छुपा लिया अपनी कविताओं की
पुरानी डायरी में
कहीं छूट गये प्रेम के
आखिरी रंग की तरह
और लगभग बन्द कर दिया
पेड़ को पेड़ साबित करने के पक्ष में तर्क देना
अपने हिस्से के दम्भी शब्दों को मैं साथ ले गया
सड़कों चौराहों चटकलों शेयर बाजारों
नेताओं और दलालों के बीच
पेड़ के अकेलेपन को सिद्ध किया मैंने जंगल
और काली वनस्पतियों को
खेत साबित करने में
अपने जबान की सारी मक्कारी लगा दी
मेज पर रखी पृथ्वी मेरे लिए खिलौना
मैं खेलता रहा कितने ही अजूबे खेल
और वह मौन सहती रही
सारे भार पृथ्वी की तरह
समय को दिया मैंने इतिहास का नाम
उसके हाथों में सौंपा
मानसून के आने का सही महीना
स्त्री थी वह सदियों पुरानी
अपने गर्भ में पड़े आदिम वीर्य के मोह में
उसने असंख्य समझौते किये
मैं उसका लहू पीता रहा सदियों
और दिन-ब-दिन और खूँखार होता रहा...