भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ढूँढे से भी घर न निकले / निश्तर ख़ानक़ाही

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:46, 2 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही }} {{KKCatGhazal}} <poem> तग़ा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तग़ाफुल* के बेरूह पैकर* न निकले
जिन्हें हमने चाहा वो पत्थर ना निकले
 
जो निकले तो कब? जब खुशी थी,न ग़म था
वो आँसू जो ग़म में भी अक्सर न निकले
 
जिन्हें कह के एक बार चुप लग गई थी
वो क़िस्से ज़बाँ से मुकर्रर* न निकले
 
भटकते फिरे हम तो कूचा-ब-कूचा
तुम्हारे ही दामन में पत्थर न निकले
 
वो पैकर जिन्हें हमने पूजा है बरसों
कभी अपने जिस्मों से बाहर न निकले
 
बयाबां में रौनक थी, वहशत घरों में
कभी हम तो ढूँढे से भी घर न निकले

1.तग़ाफुल--उदासीनता

2.पैकर---आकार

3.मुकरर्र--दोबारा