भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहाड़ जैसे / अनिता भारती

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:02, 14 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिता भारती |संग्रह=एक क़दम मेरा ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब हाथ में
टूटे काँच की कीर्च गड़ जाती है
तब उसमें से धीरे-धीरे
टीसता है दर्द

जब उसे छेड़ो तब
और जोर से टीसता है
कभी तेज
तो कभी मध्यम

लेकिन
अगर मन में गड़ जाये
वो कचीली कीर्च
तो न केवल टीसता है
बल्कि ऐसा दर्द उठता है
जैसे हजारों पहाड़
दरक गये हो अपनी जगह से

क्या रिश्ते पहाड़ जैसे
नहीं होते?
खड़े रहे तो खड़े रहे
दिन प्रतिदिन, सालोंसाल
उगाते रहे
हरी नरम दूब, पेड़ और फल-फूल,
रंग-बिरंगे मनमोहक पक्षी
दरक जाए
तो पैदा कर दे
निपट बियाबान।