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आईना भी अब देख के हैराँ नहीं होते / 'महताब' हैदर नक़वी
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आईना भी अब देख के हैराँ नहीं होते
ये लोग किसी तौर परेशाँ नहीं होते
पलकों के लिये धूप के तुकड़ों की दुआ हो
साये कभी ख़्वाबों के निगहबाँ नहीं होते
हम हुरमत-ए-दामान-ओ-क़बा के नहीं क़ायल
वहशत में मगर चाक गिरेबां नहीं होते
कह दो कि यही आख़िरी हिजरत है हमारी
हर शहर में यूँ साहब-ए-ईमाँ नहीं होते
होते हैं कई काम मोहब्बत में भी ऐसे
मुश्किल जो नहीं हैं मगर आसाँ नहीं होते